तमस (उपन्यास) : भीष्म साहनी
फिर दोनों हाथ तौलकर नत्थू ने सिल को सुअर पर दे मारा। आले में रखे दीये की लौ थरथरायी और दीवारों पर साये डोल गये। सिल सुअर के लगी थी लेकिन नत्थू ठीक तरह से नहीं जानता था कि कहाँ लगी है। सुअर ज़ोर से किकियाया और सिल खटाक से फर्श पर जा गिरी। नत्थू सिर फेंकते ही पीछे हट गया, और सुअर की ओर घूर-घूरकर देखने लगा। नत्थू को देखकर आश्चर्य हुआ, सुअर की अधमुँदी आँखें मिचमिचा रही थीं और उसकी थूथनी अभी भी अगली टाँगों पर टिकी थी।
सहसा सुअर गुर्राया और पिछली दीवार से हटकर कोठरी के बीचोबीच आने लगा। वह दायें-बायें झूल रहा था। नत्थू एक ओर को, आँगन में खुलने वाले दरवाज़े की ओर सरककर खड़ा हो गया। दीये की अस्थिर रोशनी में सुअर एक काले पुंज की तरह आगे बढ़ता आ रहा था। सिल उसके माथे पर पड़ी थी जिससे वह शायद चकरा गया था और उसे ठीक तरह से दिखायी नहीं दे रहा था। नत्थू डर गया। सुअर ज़रूर उसकी ओर बढ़ता आ रहा है और वह उसे ज़रूर काट खायेगा। सिल का उस पर कोई असर हुआ नहीं जान पड़ता था।
नत्थू ने झट से दरवाज़ा खोला और कोठरी के बाहर हो गया।
‘किस मुसीबत में जान फँस गयी हैं।’ वह बुदबुदाया और आँगन में आकर मुँडेर के पास खड़ा हो गया। बाहर पहुँचकर स्वच्छ बहती और हवा में उसे राहत मिली। कोठरी की घुटन और बदबू में वह परेशान हो उठा था। पसीने से तर उसके शरीर को हवा के हल्के से स्पर्श से असीम आनन्द का अनुभव हुआ। क्षणभर के लिए उसे लगा जैसे वह फिर से जी उठा है, उसकी शिथिल मरी हुई देह में फिर से जान आ गयी है। ‘मुझे क्या लेना इस काम से सलोतरी को सुअर नहीं मिलता तो न मिले, मेरी बला से, मैं कल मुराद अली के सामने पाँच का नोट पटक दूँगा और हाथ जोड़ दूँगा। यह मेरे बस का नहीं है हुजूर मैं यह काम नहीं कर सकता। मेरा क्या बिगाड़ लेगा। दो दिन मुँह बनाये रखेगा, मैं घुटनों पर हाथ रखकर उसे मना लूँगा।’’
मुँडेर के पीछे वह ठिठका खड़ा रहा। चाँद निकल आया था और चारों और छिटकी चाँदनी में उसे आस-पास का सारा इलाका पराया-पराया और रहस्य पूर्ण सा लग रहा था। सामने से गुजरने वाली बैलगाड़ियों की कच्ची सड़क इस वक्त सूनी पड़ी थी। मूक और शान्त। दिन भर उस पर उत्तर के गाँव से आनेवाली बैलगाड़ियों की खटर-पटर और बैलों के गले में बँधी घण्टियों की टुन टुन सुनायी देती रहती थी। उनके पहियों से सड़क पर गहरी लीकें बन गयी थीं और मिट्टी पिस–पिसकर इतनी बारीक हो गयी थी कि इस पर पैर रखते ही पैर घुटनों तक मिट्टी में धँस जाता था। सड़क के पार तीखी ढलान पर जो नीचे मैदान में उतर गयी थी, छोटी छोटी झाड़ियाँ और बेरों के पेड़ और कँटीली ‘झोर के झुरमुट धूल से अटे थे और चाँदनी रात में धुले-धुले से लग रहे थे।